SHRI SATYANARAYAN KATHA: सनातन धर्म शास्त्रों में सत्यनारायण कथा का विशेष महत्त्व है| चाहे गृह शांति की बात हो या सुख समृद्धि की, मनोकामना पूर्ति की या फिर सुखद दाम्पत्य जीवन की, प्रत्येक शुभकार्य से पहले सत्यनारायण कथा का आयोजन होता है| इतना ही नहीं मृतक संस्कार की समाप्ति के बाद भी सत्यनारायण कथा करवाई जाती है| यानी की शुभ कार्य हो या मृतक संस्कार की समाप्ति, दोनों ही समय पर इस कथा का विशेष विधान है| आइए जानते हैं क्यों की जाती है सत्य नारायण कथा और क्या है इसकी विधि एवं महत्त्व?
श्री सत्यनारायण पूजा भगवान नारायण की कृपा एवं आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु की जाती है, जो भगवान विष्णु के ही विभिन्न रूपों में से एक हैं। इस रूप में भगवान को सत्य का अवतार माना जाता है। यद्यपि सत्यनारायण पूजा करने का कोई निश्चित निर्धारित दिन नहीं होता है, किन्तु पूर्णिमा अथवा पौर्णमी के अवसर पर सत्यनारायण पूजा करना अत्यन्त शुभ माना जाता है।
भक्तों को पूजा के दिन व्रत का पालन करना चाहिये। प्रातःकाल तथा सन्ध्याकाल में भी पूजा की जा सकती है। हालाँकि सन्ध्या के समय सत्यनारायण पूजा करना अधिक उपयुक्त माना जाता है, क्योंकि भक्त सायँकाल में प्रसाद के द्वारा व्रत खोल सकते हैं।
श्री सत्यनारायण व्रत पूजन विधि
श्री सत्यनारायण का व्रत करने वाला पूर्णिमा एवम् संक्रान्ति के दिन सन्ध्या के समय स्नान आदि कर्मों से निवृत्त होकर पूजा-स्थल मे आसन पर बैठकर श्रद्धापूर्वक श्री गणेश, वरुण, गौरी, विष्णु आदि सभी देवताओं का स्मरण कर पूजन करें तथा संकल्प ग्रहण करें कि, "मैं सदैव सत्यनारायण भगवान की पूजा तथा कथा-श्रवण करूँगा। " पुष्प हाथ में लेकर सत्यनारायण भगवान का ध्यान करें, यज्ञोपवीत, धूप, पुष्प, नैवेद्य आदि अर्पित कर प्रार्थना करें- "हे भगवन्! मैंने श्रद्धापूर्वक फल, जल आदि समस्त सामग्री आपको अर्पण की है, आप इसे स्वीकार कीजिये। मेरा आपको बार-बार प्रणाम है। " तदोपरान्त श्री सत्यनारायण भगवान की कथा का पाठ अथवा श्रवण करें।
श्री सत्यनारायण व्रत कथा
प्रथम अध्याय
महामुनि ऋषि व्यास जी ने कहा, "बहुत समय पूर्व नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादिक अट्ठासी हजार ऋषियों ने पुराणवेत्ता श्री सूतजी से पूछा, "हे सूतजी! इस कलियुग में वेद-विद्या-रहित मानवों को ईश्वर भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा? हे मुनिश्रेष्ठ! कोई ऐसा व्रत अथवा तप बताइये जिसके करने से थोड़े ही समय में पुण्य प्राप्त हो तथा मनोवाञ्छित फल भी मिले। ऐसी कथा सुनने की हमारी बहुत इच्छा है। "
इस प्रश्न पर शास्त्रों के ज्ञाता श्री सूतजी ने कहा, "हे वैष्णवों! में पूज्य! आप सभी ने प्राणियों के हित एवम् कल्याण की बात पूछी है। अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूँगा जिसे श्रेष्ठमुनि नारद जी ने श्री लक्ष्मीनारायण भगवान से पूछा था और श्री लक्ष्मीनारायण भगवान ने मुनिश्रेष्ठ नारद जी को बताया था। आप सभी श्रेष्ठगण यह कथा ध्यान से सुनें-
मुनिनाथ सुनो यह सत्यकथा सब कालहि होय महासुखदायी।
ताप हरे, भव दूर करे, सब काज सरे सुख की अधिकायी ॥
अति संकट में दुःख दूर करै सब ठौर कुठौर में होत सहायी।
प्रभु नाम चरित गुणगान किये बिन कैसे महाकलि पाप नसायी॥
मुनिश्रेष्ठ नारद दूसरों के कल्याण हेतु सभी लोकों में घूमते हुये एक समय मृत्युलोक में आ पहुँचे। यहाँ बहुत सी योनियों में जन्मे प्रायः सभी मनुष्यों को अपने कर्मानुसार अनेक कष्टों से पीड़ित देखकर उन्होंने विचार किया कि किस यत्न् के करने से निश्चय ही प्राणियों के कष्टों का निवारण हो सकेगा। मन में ऐसा विचार कर श्री नारद जी विष्णुलोक गये।
वहाँ श्वेतवर्ण तथा चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को, जिनके हाथों में शँख, चक्र, गदा तथा पद्म थे तथा वरमाला धारण किये हुये थे, को देखकर उनकी स्तुति करने लगे। नारदजी ने कहा, "हे भगवन्! आप अत्यन्त शक्तिवान हैं, मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती, आपका आदि-मध्य-अन्त भी नहीं है। आप निर्गुण स्वरूप सृष्टि के कारण भक्तों के कष्टों को नष्ट करने वाले हो। आपको मेरा शत-शत नमन है। "
नारदजी से इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर विष्णु भगवान बोले, "हे योगिराज! आपके मन में क्या है? आपका किस कार्य हेतु यहाँ आगमन हुआ है? निःसंकोच कहें। "
तब मुनिश्रेष्ठ नारद मुनि ने कहा, "मृत्युलोक में सब मनुष्य, जो अनेक योनियों में पैदा हुये हैं, अपने-अपने कर्मों द्वारा अनेक प्रकार के कष्टों के कारण दुःखी हैं। हे स्वामी! यदि आप मुझ पर दया रखते हैं तो बताइये, कि उन मनुष्यों के सब कष्ट थोड़े से ही प्रयत्न से किस प्रकार दूर हो सकते हैं। "
श्री विष्णु भगवान ने कहा, "हे नारद! मनुष्यों के कल्याण हेतु तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। जिस व्रत के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है, वह व्रत मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो, अति पुण्य दान करने वाला, स्वर्ग तथा मृत्युलोक दोनो में दुर्लभ, एक अति उत्तम व्रत है जो आज मैं तुमसे कहता हूँ। श्री सत्यनारायण भगवान का यह व्रत विधि-विधानपूर्वक सम्पन्न करने पर मनुष्य इस धरती पर सभी प्रकार के सुख भोगकर, मरणोपरान्त मोक्ष को प्राप्त होता है। श्री विष्णु भगवान के ऐसे वचन सुनकर नारद मुनि बोले, "हे भगवन्! उस व्रत का विधान क्या है? फल क्या है? इससे पूर्व किसने यह व्रत किया है तथा किस दिन यह व्रत करना चाहिये? कृपया मुझे विस्तार से समझायें। "
श्री विष्णु भगवान ने कहा, "हे नारद! दुःख-शोक एवम् सभी प्रकार की व्याधियों को दूर करने वाला यह व्रत सब स्थानों पर विजय दिलाने वाला है। श्रद्धा और भक्ति के साथ किसी भी दिन, मनुष्य सन्ध्या के समय श्री सत्यनारायण भगवान की ब्राह्मणों एवं बन्धुओं के साथ पूजा करे। भक्तिभाव से नैवेद्य, केले का फल, घी, शहद, शक्कर अथवा गुड़, दूध तथा गेहूँ का आटा सवाया लेवे (गेहूँ के अभाव में साठी का चूर्ण भी ले सकते हैं)। इन सभी को भक्तिभाव से भगवान श्री सत्यनारायण को अर्पण करे। बन्धु-बान्धवों सहित ब्राह्मणों को भोजन कराये। इसके पश्चात् ही स्वयम् भोजन करे। रात्रि में श्री सत्यनारायण भगवान के गीत आदि का आयोजन कर श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करते हुये समय व्यतीत करे। इस तरह जो मनुष्य व्रत करेंगे, उनकी मनोकामनायें अवश्य ही पूर्ण होंगी। विशेषरूप से कलियुग में, मृत्युलोक में यही एक ऐसा उपाय है, जिससे अल्प समय तथा अल्प धन में महान पुण्य की प्राप्ति हो सकती है। "
श्री सत्यनारायण व्रत कथा
द्वितीय अध्याय
महान सन्त सूतजी ने कहा, "हे ऋषियों! जिन्होंने प्राचीन काल में इस व्रत को किया है, उनका इतिहास मैं आप सब से कहता हूँ, ध्यान से सुनें। , "अति सुन्दर काशीपुर नगरी में एक अति निर्धन ब्राह्मण वास करता था। वह भूख और प्यास से व्याकुल होकर हर समय दुःखी रहता था। ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले श्री विष्णु भगवान ने उसको दुखी देखकर एक दिन बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण कर निर्धन ब्राह्मण के पास जाकर बड़े आदर से पूछा, "हे ब्राह्मण! तुम प्रत्येक क्षण ही दुखी होकर पृथ्वी पर क्यों घूमते हो? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण! अपनी व्यथा मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूँ। " कष्टों से घिरे उस ब्राह्मण ने कहा, "मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ, भिक्षा के लिये पृथ्वी पर मारा-मारा फिरता हूँ। हे भगवन! यदि आप इससे मुक्ति पाने का कोई उपाय जानते हों तो कृपा कर मुझे बतायें। "
वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किये हुये श्री विष्णु भगवान तब बोले, "हे ब्राह्मण! श्री सत्यनारायण भगवान मनोवाञ्छित फल देने वाले हैं, इसीलिये तुम उनका विधिपूर्वक पूजन करो, जिसके करने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त हो जाता है। " दरिद्र ब्राह्मण को व्रत का सम्पूर्ण विधान बतलाकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धरे श्री सत्यनारायण भगवान अन्तर्ध्यान हो गये।
वृद्ध ब्राह्मण ने जिस व्रत को बतलाया है, मैं उसको अवश्य विधि-विधान सहित करूँगा, ऐसा निश्चय कर वह दरिद्र ब्राह्मण घर चला गया। परन्तु उस रात ब्राह्मण को नींद नहीं आयी।
अगले दिन वह जल्दी उठा तथा श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करने का निश्चय कर भिक्षा माँगने के लिये चल दिया। उस दिन उसको भिक्षा में अधिक धन मिला, जिससे उसने पूजा का सभी सामान खरीदा तथा घर आकर अपने बन्धु-बान्धवों के साथ विधिपूर्वक भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। इसके करने से वह निर्धन ब्राह्मण सब कष्टों से छूटकर अति धनवान हो गया। उस समय से वह ब्राह्मण प्रत्येक माह व्रत करने लगा। सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो शास्त्रविधि के अनुसार श्रद्धापूर्वक करेगा, वह सब कष्टों से छूटकर मोक्ष प्राप्त करेगा। जो भी मनुष्य श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करेगा, वह सब कष्टों से छूट जायेगा। इस प्रकार नारद जी से सत्यनारायण भगवान का कहा हुआ यह व्रत मैंने तुमसे कहा। हे श्रेष्ठ ब्राहमणों! अब आप और क्या सुनना चाहते हैं, मुझसे कहें?"
तब ऋषियों ने कहा, "हे मुनीश्वर! संसार में इस विप्र से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया, हम सब सुनना चाहते हैं।
मुनियों से ऐसा सुनकर श्री सूतजी ने कहा, "हे मुनिगण! जिस-जिस प्राणी ने इस व्रत को किया है, उन सबकी कथा सुनो। एक समय वह धनी ब्राह्मण बन्धु-बान्धवों के साथ शास्त्र विधि के अनुसार अपने घर पर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत कर रहा था। उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा व्यक्ति वहाँ आया। उसने सिर पर रखा लकड़ियों का गट्ठर बाहर रख दिया और ब्राह्मण के मकान में चला गया। प्यास से व्याकुल लकड़हारे ने विप्र को व्रत करते देखा। वह प्यास को भूल गया। उसने विप्र का अभिनन्दन किया और पूछा, "हे ब्राह्मण! आप यह किसका पूजन कर रहे हैं? इस व्रत को करने से क्या फल मिलता है? कृपा कर मुझे बतायें। "
तब उस ब्राह्मण ने कहा, "सब इच्छाओं को पूर्ण करने वाला यह श्री सत्यनारायण भगवन का व्रत है। इनकी ही कृपा से मेरे यहाँ धन एवम् ऐश्वर्य का आगमन हुआ है। ब्राह्मण से इस व्रत के विषय में ज्ञात कर वह लकड़हारा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। भगवान का चरणामृत लेकर, भोजन करने के पश्चात् वह अपने घर को चला गया।
तथा अगले दिन लकड़हारे ने अपने मन में सङ्कल्प किया कि, "आज गाँव में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा, उसी से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूँगा। " मन में ऐसा विचार कर वह लकड़हारा लकड़ियों का गट्ठर अपने सिर पर रखकर जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, ऐसे सुन्दर नगर में गया। उस दिन उसे उन लकड़ियों का दाम पहले दिनों से चौगुना मिला। तब वह बूढ़ा लकड़हारा बहुत प्रसन्न होकर पके केले, शक्कर, शहद घी, दूध, दही और गेहूँ का चूर्ण इत्यादि, श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत की सभी सामग्री लेकर अपने घर आया। फिर उसने अपने बन्धु-बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान के साथ भगवान का पूजन एवम् व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन-धान्य से युक्त हुआ तथा संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुण्ठ को चला गया।
श्री सत्यनारायण व्रत कथा
तृतीय अध्याय
श्री सूतजी बोले, "हे श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं आगे की एक कथा कहता हूँ। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक महान ज्ञानी राजा था। वह जितेन्द्रिय एवं सत्यवक्ता था। प्रतिदिन मन्दिरों में जाता तथा निर्धनों को धन देकर उनके दुःख दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान सुन्दर मुख वाली एवं सती साध्वी थी। एक दिन भद्रशीला नदी के तट पर वे दोनों विधि विधान सहित श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत कर रहे थे। उस समय वहाँ साधु नामक एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार के लिये बहुत-सा धन था। वह वैश्य अपनी नाव को नदी किनारे पर ठहराकर राजा के पास आया। राजा को व्रत करते हुये देखकर उसने विनम्रतापूर्वक पूछा, "हे राजन! यह आप क्या कर रहे हैं? मेरी सुनने की इच्छा है। कृपया आप यह मुझे भी समझाइये। महाराज उल्कामुख ने कहा, "हे साधु वैश्य! मैं अपने बन्धु-बान्धवों के साथ पुत्र की प्राप्ति के लिये श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचन सुनकर साधु नामक वैश्य ने आदर से कहा, "हे राजन! मुझे भी इसका सम्पूर्ण विधि विधान बतायें। मैं भी आपके कहे अनुसार इस व्रत को करूँगा। मेरी भी कोई सन्तान नहीं है। मुझे विश्वास है, इस उत्तम व्रत को करने से अवश्य ही मुझे भी सन्तान होगी। "
राजा से व्रत के सब विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो, वह वैश्य सुखपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी पत्नी को सन्तान देने वाले उस व्रत के विषय में सुनाया और प्रण किया कि, "जब मेरे सन्तान होगी, तब मैं इस व्रत को करूँगा। " वैश्य ने यह वचन अपनी पत्नी लीलावती से भी कहे। एक दिन उसकी पत्नी लीलावती श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गयी। दसवें महीने में उसने एक अति सुन्दर कन्या को जन्म दिया। दिनों-दिन वह कन्या इस तरह बढ़्ने लगी, जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। कन्या का नाम उन्होंने कलावती रखा। तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने जो भगवान का व्रत करने का सङ्कल्प किया था, अब आप उसे पूर्ण कीजिये। साधु वैश्य ने कहा, "हे प्रिय! मैं कलावती के विवाह पर इस व्रत को करूँगा। " इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह व्यापार करने विदेश चला गया।
कलावती पितृगृह में वृद्धि को प्राप्त हो गयी। लौटने पर साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी वयस्क होती पुत्री को खेलते देखा तो उसे उसके विवाह की चिन्ता हुयी, तब उसने एक दूत को बुलाकर कहा कि उसकी पुत्री के लिये कोई सुयोग्य वर देखकर लाये। दूत साधु नामक वैश्य की आज्ञा पाकर कन्चननगर पहुँचा तथा देख-भालकर वैश्य की कन्या के लिये एक सुयोग्य वणिक पुत्र ले आया। उस सुयोग्य लड़के के साथ साधू नमक वैश्य ने अपने बन्धु-बान्धवों सहित प्रसन्नचित्त होकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। दुर्भाग्य से वह विवाह के समय भी सत्यनारायण भगवान का व्रत करना भूल गया। इस पर श्री सत्यनारायण भगवान अत्यन्त क्रोधित हो गये। उन्होंने वैश्य को श्राप दिया कि तुम्हें दारुण दुःख प्राप्त होगा।
तदोपरान्त अपने कार्य में कुशल वह वैश्य अपने दामाद सहित नावों का बेड़ा लेकर व्यापार करने के लिये सागर के समीप स्थित रत्नसारपुर नगर में गया। रत्नसारपुर पर चन्द्रकेतु नामक राजा राज करता था। दोनों ससुर-जमाई चन्द्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित एक चोर राजा चन्द्रकेतु का धन चुराकर भाग रहा था। राजा के दूतों को अपने पीछे तेजी से आते देखकर चोर ने घबराकर राजा के धन को वैश्य की नाव में चुपचाप रख दिया, जहाँ वे ससुर-जमाई ठहरे हुये थे और भाग गया। जब दूतों ने उस वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो उन्होंने उन ससुर-दामाद को ही चोर समझा। वे उन ससुर-दामाद दोनों को बाँधकर ले गये तथा राजा के समीप पहुँचकर बोले, "आपका धन चुराने वाले ये दो चोर हम पकड़कर लाये हैं, देखकर आज्ञा दें। "
तब राजा ने बिना उस वैश्य की बात सुने उन्हे कारागार में डालने की आज्ञा दे दी। इस प्रकार राजा की आज्ञा से उनको कारावास में डाल दिया गया तथा उनका सारा धन भी छीन लिया गया। सत्यनारायण भगवान के श्राप के कारण उस वैश्य की पत्नी लीलावती व पुत्री कलावती भी घर पर बहुत दुःखी हुयीं। उनका सारा धन चोर चुराकर ले गये। मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से अति दुःखी हो भोजन की आस मे कलावती एक ब्राह्मण के घर गयी। उसने ब्राह्मण को श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत विधिपूर्वक करते देखा। उसने कथा सुनी तथा श्रद्धापूर्वक प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आयी। माता ने कलावती से पूछा, "हे पुत्री! तू अब तक कहाँ रही, मैं तेरे लिये बहुत चिन्तित थी। "
माता के शब्द सुन कलावती बोली, "हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा है और मेरी भी उस उत्तम व्रत को करने की इच्छा है। "
माता ने कन्या के वचन सुनकर सत्यनारायण भगवान के पूजन की तैयारी की। उसने बन्धुओं सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन एवं व्रत किया तथा वर माँगा कि, "मेरे पति एवं दामाद शीघ्र ही घर लौट आयें। साथ ही विनती की कि, "हे प्रभु! अगर हमसे कोई भूल हुयी हो तो हम सभी का अपराध क्षमा करो। " श्री सत्यनारायण भगवान इस व्रत से प्रसन्न हो गये। उन्होंने राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा, "हे राजन! जिन दोनों वैश्यों को तुमने बन्दी बना रखा है, वे निर्दोष हैं, उन्हें प्रातः ही छोड़ दो। उनका सब धन जो तुमने अधिग्रहित किया है, लौटा दो, अन्यथा मैं तुम्हारा राज्य, धन, पुत्रादि सब नष्ट कर दूँगा। " राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये।
तदोपरान्त प्रातः काल राजा चन्द्रकेतु ने दरबार में सबको अपना स्वप्न सुनाया तथा सैनिकों को आज्ञा दी कि दोनों वैश्यों को कैद से मुक्त कर दरबार में ले आयें। दोनों ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा ने कोमल वचनों में कहा, "हे महानुभावों! तुम्हें अज्ञानतावश ऐसा कठिन दुःख प्राप्त हुआ है। अब तुम्हें कोई भय नहीं है, तुम मुक्त हो। " इसके पश्चात् राजा ने उनको नवीन वस्त्राभूषण पहनवाये तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दुगना लौटाकर आदर सहित विदा किया। दोनों वैश्य अपने घर को चल दिये। "
श्री सत्यनारायण व्रत कथा
चतुर्थ अध्याय
सूत जी ने आगे कहा, "वैश्य ने यात्रा आरम्भ की और अपने नगर को चला। उनके थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर दण्डी वेषधारी श्री सत्यनारायण भगवान ने उसकी परीक्षा लेने हेतु उससे पूछा, "हे वैश्य! तेरी नाव में क्या है? अभिमानि वणिक हँसता हुआ बोला, "हे दण्डी! आप क्यों पूछते हैं? क्या धन लेने की कामना है? मेरी नाव में तो बेल के पत्ते भरे हैं। "
वैश्य के ऐसे वचन सुनकर दण्डी वेशधारी श्री सत्यनारायण भगवान बोले, "तुम्हारा वचन सत्य हो! ऐसा कहकर वे वहाँ से चले गये और कुछ दूर जाकर समुद्र के तट पर बैठ गये।
दण्डी महाराज के जाने के पश्चात वैश्य ने नित्य-क्रिया से निवृत्त होने के उपरान्त नाव को ऊँची उठी देखकर अचम्भा किया तथा नाव में बेल-पत्ते आदि देखकर मूर्च्छित हो भूमि पर गिर पड़ा। मूर्च्छा खुलने पर अति शोक करने लगा। तब उसके दामाद ने कहा, "आप शोक न करें। यह दण्डी महाराज का श्राप है, अतः हमें उनकी शरण में ही चलना चाहिये, वही हमारे दुःखों का अन्त करेंगे। " दामाद के वचन सुनकर वह वैश्य दण्डी भगवान के पास पहुँचा और अत्यन्त भक्तिभाव से पश्चाताप करते हुये बोला, "मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे, उनके लिये मुझे क्षमा करें। " ऐसा कहकर वह शोकातुर हो रोने लगा। तब दण्डी भगवान बोले, "हे वणिक पुत्र! मेरी आज्ञा से ही बार-बार तुझे दुख कष्ट प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ है। " तब उस वैश्य ने कहा, "हे भगवन्! आपकी माया को ब्रह्मा आदि देवता भी नहीं जान पाते, तब मैं मुर्ख भला कैसे जान सकता हूँ। आप प्रसन्न होइये, मैं अपनी क्षमता अनुसार आपकी पूजा करूँगा। मेरी रक्षा कीजिये और मेरी नौका को पहले के समान धन से परिपूर्ण कर दीजिये। "
उसके भक्ति से परिपूर्ण वचन सुनकर श्री सत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गये और उसकी इच्छानुसार वर देकर अन्तर्ध्यान हो गये। तब ससुर एवं दामाद दोनों ने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है। फिर वह विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन कर साथियों सहित अपने नगर को चला। जब वह अपने नगर के निकट पहुँचा तब उसने एक दूत को अपने घर भेजा। दूत ने साधु वैश्य के घर जाकर उसकी पत्नी को नमस्कार किया और कहा, "आपके पति अपने जमाता सहित इस नगर मे समीप आ गये हैं। " लीलावती और उसकी कन्या कलावती उस समय भगवान का पूजन कर रही थीं। दूत का वचन सुनकर साधु की पत्नी ने बड़े हर्ष के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन पूर्ण किया तथा अपनी पुत्री से कहा, "मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ, तू पूजन पूर्ण कर शीघ्र आ जाना। " परन्तु कलावती पूजन एवम् प्रसाद छोड़कर अपने पति के दर्शन के लिये चली गयी।
पूजन एवम् प्रसाद की अवज्ञा के कारण भगवान सत्यनारायण ने रुष्ट हो, उसके पति को नाव सहित पानी में डुबो दिया। कलावती अपने पति को न पाकर रोती हुयी भूमि पर गिर पड़ी। नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोती हुआ देख साधु नामक वैश्य द्रवित हो बोला, "हे प्रभु! मुझसे या मेरे परिवार से अज्ञानतावश जो अपराध हुआ है, उसे क्षमा करें। "
उसके ऐसे वचन सुनकर सत्यदेव भगवान प्रसन्न हो गये। आकाशवाणी हुयी, "हे वैश्य! तेरी पुत्री मेरा प्रसाद छोड़कर आयी है, इसीलिये इसका पति अदृश्य हुआ है। यदि वह घर जाकर प्रसाद ग्रहण कर लौटे तो इसे इसका पति अवश्य मिलेगा। " आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुँचकर प्रसाद ग्रहण किया एवं तत्पश्चात आकर अपने पति को पूर्व रूप में पाकर वह अति प्रसन्न हुयी तथा उसने अपने पति के दर्शन किये। तत्पश्चात साधु वैश्य ने वहीं बन्धु-बान्धवों सहित सत्यदेव का विधिपूर्वक पूजन किया। वह इस लोक के सभी प्रकार के सुख भोगकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुआ।
श्री सत्यनारायण व्रत कथा
पञ्चम अध्याय
श्री सूतजी बोले, "हे ऋषिगण! मैं एक और कथा कहता हूँ, आप सभी ध्यान से सुनो- सदा प्रजा के लिये चिन्तित तुङ्गध्वज नाम का एक राजा था। उसने भगवान सत्यनारायण का प्रसाद त्यागकर बहुत कष्ट पाया। एक समय राजा वन में वन्य पशुओं को मारकर बड़ के वृक्ष के नीचे आया। वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से बन्धु-बान्धवों सहित श्री सत्यनारायणजी का पूजन करते देखा। परन्तु राजा देखकर भी अभिमान के कारण न तो वहाँ गया और न ही सत्यदेव भगवान को नमस्कार ही किया। जब ग्वालों ने भगवान का प्रसाद उसके सामने रखा तो वह प्रसाद छोड़कर अपने नगर को चला गया। नगर में पहुँचकर उसने देखा कि उसका सारा राज्य नष्ट हो गया है। वह समझ गया कि यह सब भगवान सत्यदेव ने रुष्ट होकर किया है। तब वह वन में वापस आया तथा ग्वालों के समीप जाकर विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद ग्रहण किया तो सत्यनारायण की कृपा से सब-कुछ पहले के समान ही हो गया तथा दीर्घ काल तक सुख भोगकर मरणोपरान्त वह मोक्ष को प्राप्त हुआ।
जो मनुष्य इस श्रेष्ठ दुर्लभ व्रत को करेगा, श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से उसे धन-धान्य कोई अभाव नहीं होगा। निर्धन, धनी एवं बन्दी, बन्धनों से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है। सन्तानहीन को सन्तान प्राप्त होती है तथा समस्त इच्छायें पूर्ण कर अन्त में वह बैकुण्ठ धाम को जाता है।
अब उनके विषय में भी जानिये, जिन्होंने पहले इस व्रत को किया, अब उनके दूसरे जन्म की कथा भी सुनिये।
शतानन्द नामक वृद्ध ब्राह्मण ने सुदामा के रूप में जन्म लेकर श्रीकृष्ण की भक्ति एवम् सेवा कर बैकुण्ठ प्राप्त किया। उल्कामुख नामक महाराज का राजा दशरथ के रूप में जन्म हुआ तथा वह श्री रङ्गनाथ भगवान का पूजन कर मोक्ष को प्राप्त हुये। साधु नाम के वैश्य ने धर्मात्मा तथा सत्यप्रतिज्ञ राजा मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर बैकुण्ठ धाम प्राप्त किया। महाराज तुङ्ग्ध्वज स्वयम्भू मनु बने तथा उन्होंने बहुत से लोगों को भगवान की भक्ति में लीन कराकर बैकुण्ठ धाम प्राप्त किया। लकड़हारा अगले जन्म में गुह नामक निषाद राजा बना, जिसने भगवान राम के श्री चरणों की सेवा कर अपने सभी जन्मों का उद्धार कर लिया।
श्री सत्यनारायण जी की आरती
जय लक्ष्मीरमणा श्री जय लक्ष्मीरमणा।
सत्यनारायण स्वामी जनपातक हरणा॥
जय लक्ष्मीरमणा।
रत्नजड़ित सिंहासन अद्भुत छवि राजे।
नारद करत निराजन घंटा ध्वनि बाजे॥
जय लक्ष्मीरमणा।
प्रगट भये कलि कारण द्विज को दर्श दियो।
बूढ़ो ब्राह्मण बनकर कंचन महल कियो॥
जय लक्ष्मीरमणा।
दुर्बल भील कठारो इन पर कृपा करी।
चन्द्रचूड़ एक राजा जिनकी विपति हरी॥
जय लक्ष्मीरमणा।
वैश्य मनोरथ पायो श्रद्धा तज दीनी।
सो फल भोग्यो प्रभुजी फिर स्तुति कीनी॥
जय लक्ष्मीरमणा।
भाव भक्ति के कारण छिन-छिन रूप धर्यो।
श्रद्धा धारण कीनी तिनको काज सर्यो॥
जय लक्ष्मीरमणा।
ग्वाल बाल संग राजा वन में भक्ति करी।
मनवांछित फल दीनो दीनदयाल हरी॥
जय लक्ष्मीरमणा।
चढ़त प्रसाद सवाया कदली फल मेवा।
धूप दीप तुलसी से राजी सत्यदेवा॥
जय लक्ष्मीरमणा।
श्री सत्यनारायणजी की आरती जो कोई नर गावे।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे॥
जय लक्ष्मीरमणा।
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